Monday, February 28, 2011

नमाज़ के अहकाम

नमाज़ के अहकाम
दीनी आमाल में से बहतरीन अमल नमाज़ है अगर यह दरगाहे इलाही में मक़बूल हो गयी तो दूसरी इबादतें भी क़बूल हो जायगी और अगर यह क़बूल हुई तो दूसरे आमाल भी क़बूल होंगे। जिस तरह, अगर इंसान दिन रात में पाँच दफ़ा नहर में नहाये धोये तो उसके बदन पर मैल नही रहता इसी तरह पाँचों वक़्त की  नमाज़ भी इंसान को गुनाहों से पाक कर देती है। बेहतर यह है कि इंसान नमाज़ अव्वले वक़्त में पढ़े। जो इंसान नमाज़ को मामूली और ग़ैर अहम समझता है वह उस इंसान के मानिंद है जो नमाज़ पढ़ता हो। रसूले अकरम (0)  ने फ़रमाया है किजो इंसान नमाज़ को अहमिय्यत दे और उसे मामूली चीज़ समझे वह अज़ाब का मुस्तहिक़ है।एक दिन रसूले अकरम (0) मस्जिद में तशरीफ़ फ़रमा थे कि एक इंसान मस्जिद में दाख़िल हुआ और नमाज़ में मशग़ूल हो गया लेकिन वह रूकू और सजदे मुकम्मल तौर पर बजा लाया। इस पर हुज़ूर (0) ने फ़रमाया किअगर यह इंसान इस हालत में मर जाये तो इस की मौत हमारे दीन पर होगी।लिहाज़ा हर इंसान को ख़्याल रख़ना चाहिए कि नमाज़ जल्दी जल्दी पढ़े और नमाज़ पढ़ते हुए ख़ुदा की याद में रहे और ख़ुज़ूओ़ ख़ुशू संजीदगी से नमाज़ पढ़े और यह ख़याल रखे कि किस हस्ती से कलाम कर रहा है और अपने को ख़ुदावंदे आलम की अज़मत और बुज़ुर्गी के मुक़ाबले में हक़ीर और नाचीज़ समझे। अगर इंसान नमाज़ के दौरान पूरी तरह इन बातों की तरफ़ मुतवज्जेह रहे तो वह अपने आप से बेख़बर हो जाता है, जैसा कि नमाज़ की हलत में अमीरुल मोमेनीन हज़रत इमाम अली (0) रहते थे कि उनके पैर से तीर निकाल लिया गया और आप को ख़बर भी हुई। इसके अलावा नमाज़ पढने वाले को चाहिए कि तौबा इस्तग़फ़ार करे और सिर्फ़ उन ग़ुनाहों  को तरक करे जो नमाज़ के क़ुबूल होने की राह में रुकावट बनते है जैसे (हसद, तकब्बुर, ग़ीबत, हराम खाना, शराब पीना, और ख़ुमुस जक़ात का देना) बल्कि तमाम गुनाह तर्क कर दे और इसी तरह यह भी बेहतर है कि जो काम नमाज़ का सवाब कम कर देते हैं उन्हें भी करे, मसलन ऊँघते हुए या पेशाब रोक कर नमाज़ पढ़े, नमाज़ पढ़ते वक़्त आसमान की जानिब देखे। इंसान को चाहिए कि उन तमाम कामों को अंजाम दे जो नमाज़ के सवाब को बढ़ा देते हैं मसलन अक़ीक की अंग़ूठी पहने, साफ़ सुथरा लिबास पहने, कंघी और मिसवाक करे और ख़ुश्बू लगाये।
वाजिब नमाज़ें
छः नामाजें वाजिब हैं
(1) रोज़ाना की नमाज़
(2) नमाज़े आयात
(3) नमाज़े मय्यित।
(4) ख़ान--काबा के तवाफ़ की नमाज़।
(5) बाप की क़ज़ा नमाज़ जो बड़े बेटे पर वाजिब होती है।
(6) जो नमाज़ें इजारे, क़सम और अहद की वजह से वाजिब होती हैं। नमाज़े जुमा रोज़ाना की नमाज़ों में से है।
रोज़ाना की वाजिब नमाज़ें
रोज़ाना की वाजिब नमाज़ें पाँच है।
ज़ोहर और असर (हर एक चार चार रकत)
मग़रिब (तीन रकत)
इशा (चार रकत)
सुबह (दो रकत)
(736) अगर इंसान सफ़र में हो तो ज़रुरी है कि चार रकती नमाज़ो को उन शर्तों के साथ जो बाद में बयान होगी, दो रकत पढ़े।
ज़ोहर और अस्र की नमाज़ का वक़्त
(737) अगर लक़ड़ी या ऐसी ही कोई दूसरी साधी चीज़ को हमवार ज़मीन में गाड़ा जाये तो सुबह के वक़्त जिस वक़्त सूरज निकलता है उसका साया पश्चिम की तरफ़ पड़ता है, और जैसे जैसे सूरज ऊँचा होता जाता है, उसका साया घटता जाता है और जब वह साया घटने की आख़री मंज़िल पर पहुँचता है तो हमारे यहाँ जोहरे शरई का अव्वले वक़्त हो जाता है, और जैसे ही ज़ोहर तमाम होती है उसका साया पूरब की तरफ़ पलट जाता है और जैसे जैसे सूरज पश्चिम की तरफ़ ढलता जाता है साया फिर बढने लगता है। इस बिना पर जब साया कमी की आख़री दर्जे तक पहुँचने के बाद दोबारा बढ़ने लगे तो वह वक़्त ज़ोहरे शरई होता है। लेकिन कुछ शहरों में मसलन मक्क--मुकर्रेमा में जहाँ कभी कभी ज़ोहर के वक़्त साया बिल्कुल ख़त्म हो जाता है और जब साया दोबारा ज़ाहिर होता है तो मालूम होता है कि ज़ोहर का वक़्त हो गया है।
(738) ज़ोहर और अस्र की नमाज़ का वक़्त ज़वाले आफ़ताब के बाद से ग़ुरूबे आफ़ताब तक है। लेकिन अगर कोई इंसान जान बूझकर अस्र की नमाज़ को ज़ोहर की नमाज़ से पहले पढ़े तो उसकी अस्र की नमाज़ बातिल है। सिवाये इसके कि सूरज छिपने में सिर्फ़ इतना वक़्त रह गया हो कि फ़क़त एक नमाज़ पढ़ी जा सकती हो और इस सूरत में अगर उसने ज़ोहर की नमाज़ नहीं पढ़ी तो उसकी ज़ोहर की नमाज़ क़ज़ा होगी और उसे चाहिए कि अस्र की नमाज़ पढ़े। अगर कोई इंसान उस वक़्त से पहले ग़लत फ़हमी की बीना पर अस्र की पूरी नमाज़ ज़ोहर की नमाज़ से पहले पढले तो उसकी नमाज़ सही है, और एहतियाते मुस्तहब यह है कि उस नमाज़ को नमाज़े ज़ोहर क़रार दे और मा फ़ी ज़्जिम्मा की नियत से चार रकत नमाज़ और पढ़े।
(739) अगर कोई इंसान ज़ोहर की नमाज़ से पहले, ग़लती से अस्र की नमाज़ पढ़ने लगे और नामाज़ को दौरान उसे याद आये कि उससे ग़लती हुई है तो उसे चाहिए कि नियत को नमाज़े जोहर की तरफ़ फेर दे यानी नियत करे कि जो कुछ में पढ़ चुका हूँ और पढ़ रहा हूँ और पढ़ूगा वह तमाम की तमाम नमाज़े ज़ोहर है और नमाज़ के ख़त्म होने के बाद अस्र की नमाज़ पढ़े।
नमाज़े जुमा और उसके अहकाम
(740) जुमे की नमाज़ सुबह की तरह दो रकत है। इसमें और सुबह की नमाज़ में बस यह फ़र्क़ है कि इस नमाज़ से पहले दो ख़ुत्बे भी हैं। जुमे की नमाज़ वाजिबे तख़ीरी है। इससे मुराद यह है कि जुमे के दिन मुकल्लफ़ को इख़तियार है कि चाहे वह, शराइत मौजूद होने की सूरत में जुमे की नमाज़ पढ़े या जोहर की नमाज़ पढ़े। लिहाज़ा अगर इंसान जुमे की नमाज़ पढ़े तो वह ज़ोहर की नमाज़ की किफ़ायत करती है (यानी फ़िर जोहर की नमाज़ पढ़ना ज़रूरी नहीं है)
जुमे की नमाज़ के वाजिब होने की चंद शर्ते हैं:
(1) नमाज़ के वक़्त का दाख़िल हो जाना, जो कि ज़वाले आफ़ताब है, और इसका वक़्त अव्वले ज़वाले उर्फ़ी है बस जब भी इससे ताख़ीर हो जाये तो उसका वक़्त ख़त्म हो जाता है और फ़िर ज़ोहर की नमाज़ अदा करना चाहिए।
(2) नमाज़ियों की तादाद का पूरा होना, नमाज़े जुमा के लिए इमाम समीत पाँच अफ़राद का होना ज़रूरी है लिहाज़ा जब तक पाँच मुसलमान इकठ्ठे हों जुमे की नमाज़ वाजिब नही होती।
(3) इमामे जमाअत का जामे-उश-शराइत होना, यानी इमामे जमाअत के लिए जो शर्तें ज़रूरी है इमाम में उनका पाया जाना। इन शर्तों का ज़िक्र नमाज़े जमाअत की बहस में किया जायेगा। अगर यह शर्त पूरी हो तो जुमे की नमाज़ वाजिब नहीं होती।
जुमे की नमाज़ के सही होने की चंद शर्ते है:
(1) बा जमाअ़त पढ़ा जाना, यह नमाज़ फ़ुरादा अदा करना सही नहीं है और अगर मुक़्तदी नमाज़ की दूसरी रकत के रुकू से पहले इमाम के साथ शामिल हो जाये तो उसकी नमाज़ सही है, इस सूरत में उसे चाहिए कि एक रकत नमाज़ और पढ़े। लेकिन अगर वह रुकू की हालत में इमाम के साथ शामिल हो तो उसकी नमाज़ का सही होना मुशकिल है। एहतियात को तर्क नहीं करना चाहिए(यानी उसे जोहर की नमाज़ पढ़नी चाहिए)
(2) नमाज़ से पहले दो ख़ुत्बे पढ़ना, पहले ख़ुत्बे में ख़तीब अल्लाह तआ़ला की हमदो सना करते हुए नमाज़ियों को तक़वे और परहेज़गारी की तलक़ीन करे। फ़िर क़ुरान मजीद का एक छोटा सूरा पढ़ कर (थोड़ी देर के लिए मिम्बर पर) बैठ जाये। फिर ख़ड़े हो कर दूसरा ख़ुत्बा पढ़े अल्लाह तआ़ला की हमदो सना करते हुए हज़रत रसूले अकरम (0) और आइम्मए ताहेरीन (0) पर दुरूद भेजे और एहतियाते मुस्तहब यह है कि मोमेनीन और मोमेनात के लिए इस्तग़फ़ार (बख़शिश की दुआ) भी करे। ख़ुत्बों के लिए ज़रूरी है कि वह नमाज़ से पहले पढ़े जायें। लिहाज़ा अगर नमाज़ दो ख़ुतबों से पहले शुरू कर दी जाये तो सही नहीं है, और ज़वाले आफ़ताब से पहले ख़ुत्बे पढ़ने में भी इशकाल है। ख़ुत्बे पढ़ने वाले के लिए ज़रूरी है कि वह खड़े हो कर ख़ुत्बे पढ़े, लिहाज़ा बैठ कर ख़ुत्बे पढ़ना सही नहीं है। दो ख़ुत्बों के दरमियान बैठ कर फ़ासिला देना लाज़िम और वाजिब है इस बात का धघ्यान रखना चाहिए कि मिम्बर पर बहुत कम वक़्त के लिए बैठे। यह भी ज़रूरी है कि इमामे जमाअत और ख़तीब (यानी जो इंसान ख़ुत्बे पढ़े) एक ही इंसान हो और अक़वा यह है कि ख़ुतबे में तहारत शर्त नहीं है अगरचे शर्त का होना अहवत है। एहतियात यह है कि अल्लाह तआ़ला की हमदो सना और पैग़म्बर अकरम और आइम्मा--ताहेरीन पर दरूद भेजने के लिए अर्बी ज़बान को इस्तेमाल किया जाये लेकिन इसके अलावा ख़ुत्बे की दूसरी बातों को अर्बी में कहना ज़रूरी नहीं हैं। बल्कि अगर हाज़ेरीन की अकसरियत अर्बी जानती हो तो एहतियाते लाज़िम यह है कि तक़वे के बारे में जो वाज़ो नसीहत किया जाय वह उस ज़बान में हो जो हाज़ेरीन जानते हों।
(3) दो जगह पर जुमे की नमाज़ क़ाइम करने के लिए दोनों के दरमियान एक फ़रसख़ (5500 मीटर) से कम फ़ासिला हो। अगर जुमे कि दो नमाज़ें एक फ़रसख़ से कम फ़ासिले पर एक ही वक़्त में पढ़ी जायें तो दोनों बातिल होंगी। अगर एक नमाज़ को दूसरी नमाज़ पर सबक़त हासिल हो जाये चाहे वह तकबीरतुल अहराम की हद तक ही क्यों हो तो वह (नमाज़ जिसे सबक़त हासिल हो) सही होगी और दूसरी बातिल होगी। लेकिन अगर नमाज़ के बाद पता चले कि एक फ़रसख़ से कम फ़ासिले पर, जुमे की एक और नमाज़ इससे पहले या इसके साथ साथ क़ाइम हुई थी तो ज़ोहर की नमाज़ वाजिब नही होगी और इस से कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता कि इस बात का इल्म वक़्त में हो या वक़्त के बाद हो। मुक़र्ररा फ़ासिले के अंदर जुमे की दूसरी नमाज़ पहली नमाज़ की राह में इस सूरत में ही माने हो सकती है जब वह सही और जामे उश शराइत हो, वरना यह नमाज़ पहली नमाज़ की राह में माने नही हो सकती।
(741) जब जुमे की एक ऐसी नमाज़ क़ाइम हो जो शराइत को पूरा करती हो और नमाज़ क़ाइम करने वाला ख़ुद इमामे वक़्त या उनका नाइब हो तो इस सूरत में नमाज़े जुमा के लिए हाज़िर होना वाजिब है और इस सूरत के अलावा हाज़िर होना वाजिब नहीं है। पहली सूरत में हाज़री के वजूब के लिए चंद चीज़ें मोतबर हैं:
(1) मुकल्लफ़ मर्द हो, जुमे की नमाज़ में औरतों का हाज़िर होना वाजिब नहीं है।
(2) आज़ाद हो, ग़ुलामों के लिए जुमे की नमाज़ में हाज़िर होना वाजिब नहीं है।
(3) मुक़ीम हो, मुसाफ़िर के लिए जुमे की नमाज़ में शामिल होना बाजिब नहीं है। और इसमें कोई फ़र्क़ नही है कि वह मुसाफ़िर पूरी नमाज़ पढ़ने वाला हो या क़स्र पढ़ने वाला। जैसे किसी मुसाफ़िर ने इक़ामत का क़स्द किया हो और उसका फ़रीज़ा पूरी नमाज़ पढना हो।
(4) बीमार और अंधा हो, बीमार और अंधे पर जुमे की नमाज़ वाजिब नहीं है।
(5) बूढ़ा हो, बूढ़ों पर यह नमाज़ वाजिब नहीं है।
(6) नमाज़ में शिरकत करने वालों की जगह और नमाज़ क़ाइम होने की जगह के दरमियान दो फ़रसख़ से ज़्यादा फ़ासला हो और जो इंसान दो फ़र्ख़ के सर पर हो उसके लिए नमाज़े जुमा में हाज़िर होना वाजिब है। जिस इंसान के लिए जुमे की नमाज़ में, बारिश या सख़्त सर्दी वग़ैरा की वजह से हाज़िर होना मुशकिल या दुशवार हो उसके लिए नमाज़े जुमा में शिरकत वाजिब नहीं है।
(742) जुमे की नमाज़ से मुतल्लिक़ कुछ अहकाम इस तरह हैं।
(1) जिस इंसान से जुमे की नमाज़ साक़ित हो गई हो और उसका इस नमाज़ में हाज़िर होना वाजिब हो, उसके लिए जाइज़ है कि वह ज़ोहर की नमाज़ अव्वले वक़्त में अदा करने के लिए जल्दी करे।
(2) इमामे जमाअत के ख़ुत्बे के दौरान बात चीत करना मक़रूह है। लेकिन अगर बात चीत ख़ुत्बा सुन्ने में रुकावट बन रही हो तो एहतियात की बिना पर बातें करना जाइज़ नही है। जो तादात नमाज़े जुमा के वाजिब होने के लिए ज़रूरी है उसमें और इससे ज़्यादा के दरमियान कोई फ़र्क़ नही है।
(3) एहतियात की बिना पर दोनों ख़ुतबों को तवज्जोह के साथ सुनना वाजिब है। लेकिन जो लोग ख़ुत्बों के मतलब को समझते हो उनके लिए तवज्जो से सुन्ना वाजिब नहीं है।
(4) जुमे के दिन की दूसरी अज़ान बिदअत है और यह वही अज़ान है जिसे आम तौर पर तीसरी अज़ान कहा जाता है।
(5) जब इमामे जमाअत जुमे का ख़ुत्बा पढ़ रहा हो तो उस दौरान हाज़िर होना वाजिब नहीं है।
(6) जुमे की नमाज़ की अज़ान के वक़्त ख़रीदो फ़रोख़्त इस सूरत में हराम है जब वह नमाज़ में माने हो, और अगर ऐसा हो तो हराम नहीं है। और अज़हर यह है कि ख़रीदो फ़रोख़्त हराम होने की सूरत में भी मामला बातिल नही होता।
(7) अगर किसी इंसान पर जुमे की नमाज़ में हाज़िर होना वाजिब हो और वह इस नमाज़ को तर्क करे और ज़ोहर की नमाज़ बजा लाए तो अज़हर यह है कि उसकी नमाज़ सही होगी।
मग़रिब और इशा की नमाज़ का वक़्त
(743) एहतियाते वाजिब यह है कि जब तक पूरब की जानिब की वह सुरख़ी जो सूरज के छुपने के बाद ज़ाहिर होती है इंसान के पर से ग़ुज़र जाये, मग़रिब की नमाज़ पढ़े।
(744) मग़रिब और इशा की नमाज़ का वक़्त मुख़्तार इंसान के लिए आधी रात तक है। लेकिन जिन लोगों को कोई उज़्र हो मसलन भूल जाने की वजह से या नींद या हैज़ या उन जैसी दूसरी वजहों की बिना पर आधी रात से पहले नमाज़ पढ़ सकते हों, तो उनके लिए मग़रिब और इशा की नमाज़ का वक़्त फ़ज्र के ज़ाहिर होने तक बाक़ी रहता है। लेकिन इन दोनों नमाज़ों के दरमियान मुतावज्जेह होने की सूरत में तरतीब ज़रूरी है यानी इशा की नमाज़ को जान बूझकर मग़रिब की नमाज़ से पहले पढ़े तो नमाज़ बातिल है। लेकिन अगर वक़्त इतना कम रह गया हो कि सिर्फ़ इशा की नमाज़ पढ़ी जा सकती हो तो इस सूरत में लाज़िम है कि इशा की नमाज़ को मग़रिब से पहले पढ़े।
(745) अगर कोई इंसान ग़लत फ़हमी की बिना पर इशा की नमाज़ मग़रिब की नमाज़ से पहले पढ़ ले और नमाज़ के बाद उसे यह बात याद आये तो उसकी नमाज़ सही है और ज़रूरी है कि मग़रिब की नमाज़ उसके बाद पढ़े।
(746) अगर कोई इंसान मग़रिब की नमाज़ पढ़ने से पहले भूले से इशा की नमाज़ पढने में मशग़ूल हो जाये और नमाज़ के दौरना उसे पता चले कि उसने ग़लती की है और अभी वह चौथी रकत के रूकू तक पहुँचा हो तो ज़रूरी है कि अपनी नियत को मग़रिब की नमाज़ की तरफ़ फ़ेरे और नमाज़ को तमाम करे। बाद में इशा की नमाज़ पढ़े और अगर चौथी रकत के रुकू में जा चुका हो तो उसे इशा की नमाज़ क़रार दे कर तमाम करे और बाद में मग़रिब की नमाज़ बजा लाए।
(747) इशा की नमाज़ का वक़्त मुख़्तार इंसान के लिए आधी रात तक है और रात का हिसाब सूरज ग़ूरूब होने की इबतिदा से तुलू फ़जर तक है।
(748) अगर कोई इंसान इख़्तियार की हालत में मग़रिब और इशा की नमाज़ आधी रात तक पढ़े तो एहतियाते वाजिब की बिना पर ज़रूरी है कि अज़ाने सुबह से पहले क़ज़ा और अदा की निय्य्त किये बग़ैर इन नमाज़ों को पढ़े।
सुबह की नमाज़ का वक़्त
(749) सुबह की अज़ान के क़रीब पूरब की तरफ़ से एक सफ़ेदी ऊपर उठती है, उस वक़्त को फ़जरे अव्वल कहा जाता है और जब यह सफ़ेदी फैल जाती है तो उस वक़्त को फ़जरे दोव्वुम कहा जाता है और यही सुबह की नमाज़ का अव्वले वक़्त है। सुबह की नमाज़ का आख़री वक़्त सूरज निकलने तक है।
नमाज़ के वक़्तों के अहकाम
(750) इंसान नमाज़ में उस वक़्त मशग़ूल हो सकता है जब उसे यक़ीन हो जाये कि वक़्त दाख़िल हो गया है या दो आदिल मर्द वक़्त दाख़िल होने की ख़बर दें बल्कि किसी वक़्त शनास, क़ाबिले इत्मीनान इंसान की अज़ान पर या वक़्त दाख़िल होने के बारे में गवाही पर भी इक्तिफ़ा किया जा सकता है।
(751) अगर कोई इंसान किसी ज़ाती उज़्र मसलन नाबीना होने या क़ैद ख़ाने में होने की वजह से नमाज़ के अव्वले वक़्त के दाख़िल होने का यक़ीन कर सके तो ज़रूरी है कि नमाज़ पढ़ने में ताख़ीर करे हत्ता कि उसे यक़ीन या इतमीनान हो जाये कि वक़्त दाख़िल हो गया है। इसी तरह अगर वक़्त दाख़िल होने का यक़ीन होने में ऐसी चीज़ माने हो जो उमूमन पेश आती हो मसलन बादल, ग़ुबार या इन जैसी दूसरी चीज़ें तो एहतियाते लाज़िम की बिना पर उसके लिए भी यही हुक्म है।
(752) अगर ऊपर बयान किये गये तरीक़े से किसी इंसान को इत्मीनान हो जाये कि नमाज़ का वक़्त हो गया है और वह नमाज़ में मशग़ूल हो जाये, लेकिन नमाज़ के दौरान उसे पता चले कि अभी वक़्त दाख़िल नहीं हुआ तो उसकी नमाज़ बातिल है। अगर नमाज़ के बाद पता चले कि उसने सारी नमाज़ वक़्त से पहले पढ़ी है तो उसके लिए भी यही हुक्म है। लेकिन अगर नमाज़ के दौरान उसे पता चले कि वक़्त दाख़िल हो गया है या नमाज़ के बाद पता चले कि नमाज़ पढ़ते हुए वक़्त दाख़िल हो गया था तो उसकी नमाज़ सही है।
(753) अगर कोई इंसान इस बात की तरफ़ मुतवज्जेह हो कि वक़्त के दाख़िल होने का यक़ीन कर के नमाज़ में मशग़ूल होना चाहिए, लेकिन नमाज़ के बाद उसे पता चले कि उसने सारी नमाज़ वक़्त में पढ़ी है तो उसकी नमाज़ सही है। और अगर उसे पता चल जाये कि उसने वक़्त से पहले नमाज़ पढ़ी है या उसे यह पता चले कि वक़्त में पढ़ी है या वक़्त से पहले पढ़ी है, तो उसकी नमाज़ बातिल है। बल्कि अगर नमाज़ के बाद उसे पता चले कि नमाज़ के दौनान वक़्त दाख़िल हो गया था तब भी उसे चाहिए कि उस नमाज़ को दोबारा पढ़े।
(754) अगर किसी इंसान को यक़ीन हो कि वक़्त दाख़िल हो गया है और  वह नमाज़ पढ़ने लगे, लेकिन नमाज़ के दौरान शक करे कि वक़्त दाख़िल हुआ है या नहीं तो उसकी नमाज़ बातिल है। लेकिन अगर नमाज़ के दौरान उसे यक़ीन हो कि वक़्त दाख़िल हो गया है और शक करे कि जितनी नमाज़ पढ़ी है वह वक़्त में पढ़ी है या नहीं तो उसकी नमाज़ सही है।
(755) अगर नमाज़ का वक़्त इतना तंग हो कि नमाज़ के कुछ मुस्तहब अफ़आ़ल अदा करने से नमाज़ की कुछ मिक़दार, वक़्त के बाद पढ़नी पड़ती हो तो ज़रूरी है कि उन मुस्तहब उमूर को छोड़ दे मसलन अगर क़ुनूत पढ़ने की वजह से नमाज़ का कुछ हिस्सा वक़्त के बाद पढ़ना पड़ता हो तो उसे चाहिए कि क़ुनूत पढ़े।
(756) जिस इंसान के पास नमाज़ की फ़क़त एक रकत अदा करने का वक़्त बचा हो उसे चाहिए कि नमाज़ अदा की नियत से पढ़े, अलबत्ता उसे जान बूझ कर नमाज़ में ताख़ीर नही करनी चाहिए।
(757) जो इंसान सफ़र में हो, अगर उसके पास ग़ुरूबे आफ़ताब तक पाँच रकत नमाज़ पढ़ने के अंदाज़े के मुताबिक़ वक़्त हो तो उसे चाहिए कि ज़ोहर और अस्र की दोनों नमाज़ें पढ़े। लेकिन अगर उसके पास इससे कम वक़्त हो तो उसे चाहिए कि सिर्फ़ अस्र की नमाज़ पढ़े और बाद में ज़ोहर की नमाज़ क़ज़ा करे। इसी तरह अगर किसी आदमी के पास आधी रात तक पाँच रकत पढ़ने के अंदाज़े के मुताबिक़ वक़्त हो तो उसे चाहिए कि मग़रिब और इशा की नमाज़ पढ़े और अगर वक़्त इस से भी कम हो तो उसे चाहिए कि सिर्फ़ इशा की नमाज़ पढ़े और बाद में अदा और क़ज़ा की नियत किये बग़ैर नमाज़े मग़रिब पढ़े।
(758) जो इंसान सफ़र में हो, अगर सूरज डूबने तक उसके पास तीन रकत नमाज़ पढ़ने के अंदाज़े के मुताबिक़ वक़्त हो, तो उसे चाहिए कि ज़ोहर और अस्र की नमाज़ पढ़े और अगर इस से कम वक़्त हो तो उसे चाहिए कि सिर्फ़ अस्र पढ़े और बाद में नमाज़े ज़ोहर की क़ज़ा करे और अगर आधी रात तक उसके पास चार रकत नमाज़ पढ़ने के अंदाज़े के मुताबिक़ वक़्त हो तो उसे चाहिए कि मग़रिब और इशा की नमाज़ पढ़े और अगर नमाज़ की तीन रकत के बराबर वक़्त बाक़ी हो तो उसे चाहिए कि पहले इशा की नमाज़ पढ़े और बाद में मग़रिब की नमाज़ बजा लाए ताकि नमाज़े मग़रिब की एक रकत वक़्त में अंजाम दी जाये, और अगर नमाज़ की तीन रकत से कम वक़्त बाक़ी हो तो ज़रूरी है कि पहले इशा की नमाज़ पढ़े और बाद में मग़रिब की नमाज़ अदा और क़ज़ा की नियत किये बग़ैर पढ़े और अगर इशा की नमाज़ पढ़ने के बाद मालूम हो जाये कि आधी रात होने में एक रकत या उस से ज़्यादा रकतें पढ़ने के लिए वक़्त बाक़ी है तो उसे चाहिए कि मग़रिब की नमाज़ फ़ौरन अदा की नियत से पढ़े।
(760) जब इंसान के पास कोई ऐसा उज़्र हो कि अगर अव्वले वक़्त में नमाज़ पढ़ना चाहे तो तयम्मुम कर के नमाज़ पढ़ने पर मजबूर हो और इल्म हो कि उस का उज़्र आख़िर वक़्त तक बाक़ी रहेगा या आख़िर वक़्त तक उज़्र के दूर होने से मायूस हो तो वह अव्वले वक़्त में तयम्मुम कर के नमाज़ पढ़ सकता है। लेकिन अगर मायूस हो तो ज़रूरी है कि उज़्र दूर होने तक इंतेज़ार करे और अगर उस का उज़्र दूर हो तो आख़िरी वक़्त में नमाज़ पढ़े और यह ज़रूरी नहीं कि इस क़दर इंतिज़ार करे कि नमाज़ के सिर्फ़ वाज़िब अफ़आ़ल अंजाम दे सके बल्कि अगर उसके पास नमाज़ के मुस्तहब्ब अमल मसलन अज़ान, इक़ामत और क़ुनूत के लिए भी वक़्त हो तो वह तयम्मुम कर के उन मुसतहब्बात के साथ नमाज़ आदा कर सकता है और तयम्मुम के अलावा दूसरी मज़बूरियों की सूरत में अगरचे उज़्र दूर होने से मायूस हुआ हो उसके लिए जाइज़ है कि अव्वले वक़्त में नमाज़ पढ़े। लेकिन अगर वक़्त के दौरान उसका उज़्र दूर हो जाये तो ज़रूरी है कि दोबारा नमाज़ पढ़े।
(761) अगर एक इंसान नमाज़ के मसाइल और शक्कीयात और सहव का इल्म रखता हो और उसे इस बात का एहतेमाल हो कि उसे नमाज़ के दौरान इन मसाइल में से कोई कोई मसला पेश आयेगा और उनके याद करे की वजह से किसी लाज़िमी हुक्म की मुख़ालिफ़त होती हो तो ज़रूरी है कि उन्हें सीख़ने के लिए नमाज़ को अव्वले वक़्त में पढ़ कर देर से पढ़े लेकिन अगर इस उम्मीद से कि नमाज़ को सही पढ़ लेगा, नमाज़ पढ़ने में मशग़ूल हो जाये और उसे नमाज़ में कोई ऐसा मसला पेश आये जिसका हुक्म वह जानता हो तो उसकी नमाज़ सही है। लेकिन अगर नमाज़ में कोई ऐसा मसला पेश आजाये कि जिसका हुक्म जानता हो तो उसके लिए जायज़ है कि दो बातों में जिस तरफ़ एहतेमाल हो उस पर अमल करते हुए नमाज़ तमाम करे। लेकिन ज़रूरी है कि नमाज़ के बाद मसला पूछे अगर उसकी नमाज़ बातिल हो तो दोबारा पढ़े और अगर सही हो तो दोबारा पढ़ना लाज़िम नहीं है।
(762) अगर नमाज़ का वक़्त काफ़ी हो और क़र्ज़ ख़ाह भी अपने क़र्ज़ का तक़ाज़ा कर रहा हो तो अगर मुमकिन हो तो ज़रूरी है कि पहले क़र्ज़ अदा करे और बाद में नमाज़ पढ़े और अगर कोई ऐसा दूसरा वाजिब काम पेश जाये जिसे फ़ौरन करना ज़रूरी हो तो उसके लिए भी यही हुक्म है मसलन अगर देखे कि मस्जिद नजिस हो गयी है, तो ज़रूरी है कि पहले मस्जिद को पाक करे और बाद में नमाज़ पढ़े और अगर ऊपर बयान की गईं दोनों सूरतों में पहले नमाज़ पढ़े तो गुनाह का मुरतकिब होगा लिकन उसकी नमाज़ सही होगी।
آخری تازہ کاری (جمعرات, 12 اگست 2010 20:49)

 

3 comments:

  1. जानकारीपरक आलेख । शुभागमन...!
    हिन्दी ब्लाग जगत में आपका स्वागत है, कामना है कि आप इस क्षेत्र में सर्वोच्च बुलन्दियों तक पहुंचें । आप हिन्दी के दूसरे ब्लाग्स भी देखें और अच्छा लगने पर उन्हें फालो भी करें । आप जितने अधिक ब्लाग्स को फालो करेंगे आपके अपने ब्लाग्स पर भी फालोअर्स की संख्या बढती जा सकेगी । प्राथमिक तौर पर मैं आपको मेरे ब्लाग 'नजरिया' की लिंक नीचे दे रहा हूँ आप इसके दि. 18-2-2011 को प्रकाशित आलेख "नये ब्लाग लेखकों के लिये उपयोगी सुझाव" का अवलोकन करें और इसे फालो भी करें । आपको निश्चित रुप से अच्छे परिणाम मिलेंगे । शुभकामनाओं सहित...
    http://najariya.blogspot.com

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  2. इस नए सुंदर से चिट्ठे के साथ आपका हिंदी ब्‍लॉग जगत में स्‍वागत है .. नियमित लेखन के लिए शुभकामनाएं !!

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  3. Allah tumhe jaza e khair de. Bhai. Shia kitabe upload karte raho. Taaki ye ummate nabwi tak pahunchti rahe.

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